EN اردو
ख़्वाह महसूर ही कर दें दर-ओ-दीवार मुझे | शाही शायरी
KHwah mahsur hi kar den dar-o-diwar mujhe

ग़ज़ल

ख़्वाह महसूर ही कर दें दर-ओ-दीवार मुझे

शहज़ाद क़मर

;

ख़्वाह महसूर ही कर दें दर-ओ-दीवार मुझे
घर को बनने नहीं देना कभी बाज़ार मुझे

मैं इसे दस्त-ए-अदू में नहीं जाने दूँगा
सर की क़ीमत पे भी महँगी नहीं दस्तार मुझे

मैं जो चलता हूँ तो आँखें भी खुली रखता हूँ
इतना सादा भी न समझें मिरे सालार मुझे

फिर तवाज़ुन में रहेगी मिरी नाव कब तक
जब डुबोने पे तुले हैं मिरे पतवार मुझे

या ज़माना मिरी तक़लीद में आ निकलेगा
या कहीं का न रखेंगे मिरे मेयार मुझे

अब मिरा हिज्र मुझे साथ लिए फिरता है
जाइए अब कोई साथी नहीं दरकार मुझे

इस तरह सोचते रहना नहीं अच्छा 'शहज़ाद'
फ़िक्र-ए-सेहहत ही न कर दे कहीं बीमार मुझे