EN اردو
ख़्वाबों की तिलस्माती गुफाओं से निकल के | शाही शायरी
KHwabon ki tilsmati guphaon se nikal ke

ग़ज़ल

ख़्वाबों की तिलस्माती गुफाओं से निकल के

ख़ावर रिज़वी

;

ख़्वाबों की तिलस्माती गुफाओं से निकल के
देखो कभी वीराना-ए-जाँ आँख को मल के

हर लम्हा है इक आइना-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता
पेशानी-ए-इमरोज़ पे भी ज़ख़्म हैं कल के

तय हो न सका मरहला-ए-दश्त-ए-तमन्ना
दीवार बनी पाँव की ज़ंजीर पिघल के

इक रोज़ तो ये दिल की तड़प लब पे भी आए
इक रोज़ तो ये साग़र-ए-लबरेज़ भी छलके

देखा जो कभी दिल के दरीचे में सिमट कर
सदियाँ मिलें सिमटी हुई आग़ोश में पल के

हैजान से हैं गूँजी हुई ध्यान की गलियाँ
दिल में उतर आए हैं निगाहों के धुँदलके

'ख़ावर' अभी कुछ याद की शमएँ हैं फ़रोज़ाँ
रौशन हैं दर-ओ-बाम अभी मेरी ग़ज़ल के