ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या
दश्त तो दश्त है बाज़ार भी हो जाए तो क्या
अब कहाँ कोई सितारों को गिना करता है
मेरा हर ज़ख़्म नुमूदार भी हो जाए तो क्या
सो चुकी शाम अंधेरे का है साया दिल पर
आज ख़्वाहिश कोई बेदार भी हो जाए तो क्या
ज़िंदगी अपनी न बदली है न बदलेगी कभी
ख़ाक-ए-पा ज़ीनत-ए-दस्तार भी हो जाए तो क्या
मंज़िलें बढ़ने लगीं ख़ुद ही मुसाफ़िर की तरफ़
रास्ता सूरत-ए-दीवार भी हो जाए तो क्या
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ग़ज़ल
ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या
मुज़फ़्फ़र अबदाली