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ख़्वाब ताबीर में ढलते हैं यहाँ से आगे | शाही शायरी
KHwab tabir mein Dhalte hain yahan se aage

ग़ज़ल

ख़्वाब ताबीर में ढलते हैं यहाँ से आगे

लियाक़त अली आसिम

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ख़्वाब ताबीर में ढलते हैं यहाँ से आगे
आ निकल जाएँ शब-ए-वहम-ओ-गुमाँ से आगे

रंग पैराहन-ए-ख़ाकी का बदलने के लिए
मुझ को जाना है अभी रेग-ए-रवाँ से आगे

इक क़दम और सही शहर-ए-तनफ़्फ़ुस से उधर
इक सफ़र और सही कूचा-ए-जाँ से आगे

इस सफ़र से कोई लौटा नहीं किस से पूछें
कैसी मंज़िल है जहान-ए-गुज़राँ से आगे

मैं बहुत तेज़ हवाओं की गुज़रगाह में हूँ
एक बस्ती है कहीं मेरे मकाँ से आगे

मेरी आवारगी यूँ ही तो नहीं है 'आसिम'
कोई ख़ुशबू है मिरी उम्र-ए-रवाँ से आगे