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ख़्वाब सहरा तिरी ताबीर निकल आई है | शाही शायरी
KHwab sahra teri tabir nikal aai hai

ग़ज़ल

ख़्वाब सहरा तिरी ताबीर निकल आई है

खुर्शीद अकबर

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ख़्वाब सहरा तिरी ताबीर निकल आई है
कोई वहशत है कि जागीर निकल आई है

शाख़-ए-मिज़्गाँ के परिंदे हैं ये आँसू गोया
आब-ओ-दाना लिए तक़दीर निकल आई है

ख़ूँ उबलता है निकलता है धुआँ आँखों से
देख पानी की ये तहरीर निकल आई है

शहर इस तरह बयाबाँ में गिरा है जैसे
वक़्त के पाँव से ज़ंजीर निकल आई है

ज़िंदगी तुझ को मगर शर्म नहीं आती क्या
कैसी कैसी तिरी तस्वीर निकल आई है

रात है जिस्म है बिस्तर है फ़लक पहलू में
चाँद निकला है कि शमशीर निकल आई है

तेज़ लहरों में सलामत नहीं कोई 'ख़ुर्शीद'
किस तरह हसरत-ए-तामीर निकल आई है