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ख़्वाब में एक मकाँ देखा था | शाही शायरी
KHwab mein ek makan dekha tha

ग़ज़ल

ख़्वाब में एक मकाँ देखा था

मोहम्मद अल्वी

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ख़्वाब में एक मकाँ देखा था
फिर न खिड़की थी न दरवाज़ा था

सूने रस्ते पे सर-ए-शाम कोई
घर की यादों में घिरा बैठा था

लोग कहते हैं कि मुझ सा था कोई
वो जो बच्चों की तरह रोया था

रात थी और कोई साथ न था
चाँद भी दूर खड़ा हँसता था

एक मेला सा लगा था दिल में
मैं अकेला ही फिरा करता था

ऐसा हंगामा न था जंगल में
शहर में आए तो डर लगता था

ग़म के दरिया में तिरी यादों का
इक जज़ीरा सा उभर आया था

कौन आया था मकाँ में 'अल्वी'
किस ने दरवाज़ा अभी खोला था