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ख़्वाब में भी मेरी ज़ंजीर-ए-सफ़र का जागना | शाही शायरी
KHwab mein bhi meri zanjir-e-safar ka jagna

ग़ज़ल

ख़्वाब में भी मेरी ज़ंजीर-ए-सफ़र का जागना

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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ख़्वाब में भी मेरी ज़ंजीर-ए-सफ़र का जागना
आँख क्या लगना कि इक सौदा-ए-सर का जागना

अगले दिन क्या होने वाला था कि अब तक याद है
इंतिज़ार-ए-सुब्ह में वो सारे घर का जागना

बस्तियों से शब-नवर्दों का चला जाना मगर
रात भर अब भी चराग़-ए-रहगुज़र का जागना

आख़िरी उम्मीद का महताब जल बुझने के ब'अद
मेरा सो जाना मिरे दीवार-ओ-दर का जागना

फिर हवाओं से किसी इम्कान की मिलना नवेद
फिर लहू में आरज़ू-ए-ताज़ा-तर का जागना

एक दिन उस लम्स के असरार खुलना जिस्म पर
एक शब इस ख़ाक में बर्क़-ओ-शरर का जागना

इस का हर्फ़-ए-मुख़्तसर बेदारियों का सिलसिला
लफ़्ज़ में मअनी का, मअनी में असर का जागना

बे-नवा पत्ते भी आयात-ए-नुमू पढ़ते हुए
तुम ने देखा है कभी शाख़-ए-शजर का जागना

यक-ब-यक हर रौशनी का डूब जाना और फिर
आसमाँ पर इक तिलिस्म-ए-सीम-ओ-ज़र का जागना