ख़्वाब देखूँ कोई महताब लब-ए-बाम उतरे
यूँ भी हो जाए मुराद-ए-दिल-ए-नाकाम उतरे
अगले वक़्तों की बशारत से हो दुनिया रौशन
आसमानों से ज़मीं पर तिरा इनआ'म उतरे
याद आए तो खिलें फूल चले पुर्वाई
दर्द जागे तो तिरा अक्स तह-ए-जाम उतरे
मैं चराग़ों से हमेशा तिरी बीती पूछूँ
बिन बताए तू मिरे घर में सर-ए-शाम उतरे
मैं दुआ माँगूँ किसी नेक घड़ी में 'सहबा'
उस का दुख मेरा मुक़द्दर हो मिरे नाम उतरे

ग़ज़ल
ख़्वाब देखूँ कोई महताब लब-ए-बाम उतरे
सहबा वहीद