EN اردو
ख़्वाब और ख़्वाब का फ़ुसूँ नहीं कुछ | शाही शायरी
KHwab aur KHwab ka fusun nahin kuchh

ग़ज़ल

ख़्वाब और ख़्वाब का फ़ुसूँ नहीं कुछ

महमूद अज़हर

;

ख़्वाब और ख़्वाब का फ़ुसूँ नहीं कुछ
आँख खुल जाए तो जुनूँ नहीं कुछ

हुस्न कहता है बात कर मुझ से
इश्क़ कहता है मैं कहूँ नहीं कुछ

और कुछ चाहिए मोहब्बत में
हालत-ए-हाल-ए-दिल ज़ुबूँ नहीं कुछ

राएगाँ जा रहे हैं नक़्श मिरे
आइना-ख़ाना ही फ़ुज़ूँ नहीं कुछ

तू बहुत एहतियात करता था
तेरे हाथों में आज क्यूँ नहीं कुछ

आसमाँ यूँ भी हम पे गिरता है
सक़्फ़ तो छोड़िए सुतूँ नहीं कुछ

उस ने माथे पे होंट रख के कहा
आज ये ज़ख़्म नीलगूँ नहीं कुछ

लौट आती है वो नज़र ख़ाली
क्या मिरी ज़ात के दरूँ नहीं कुछ

काम सर पर पड़े रहें 'अज़हर'
और मैं बैठा रहूँ करूँ नहीं कुछ