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ख़्वाब ऐसा भी नज़र आया है अक्सर मुझ को | शाही शायरी
KHwab aisa bhi nazar aaya hai akasr mujhko

ग़ज़ल

ख़्वाब ऐसा भी नज़र आया है अक्सर मुझ को

शारिक़ जमाल

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ख़्वाब ऐसा भी नज़र आया है अक्सर मुझ को
लगा जिबरील का शहपर मिरा बिस्तर मुझ को

अपने मक़्सद के लिए लफ़्ज़ बना कर मुझ को
कोई दौड़ाता है काग़ज़ की सड़क पर मुझ को

डस न ले देखो कहीं धूप का मंज़र मुझ को
तुम ने भेजा तो है बल खाती सड़क पर मुझ को

सब को मैं उन की किताबों में नज़र आता हूँ
लोग पढ़ते हैं तिरे शहर में घर घर मुझ को

क्यूँ न घबराऊँ कि तन्हा हूँ घना है जंगल
दूर से देखे है सन्नाटे का लश्कर मुझ को

क्यूँ न सहरा को निचोड़ूँ कि मिरी प्यास बुझे
देगा इक क़तरा न कंजूस समुंदर मुझ को

नींद जब तक थी मिरी आँखों में महफ़ूज़ था मैं
क़त्ल लम्हों ने किया ख़्वाब से बाहर मुझ को

मेरी आँखों के दहकते हुए शोले प न जा
सर्द कितना हूँ समझ हाथ से छू कर मुझ को

वो पिघलता है कि 'शारिक़' मिरा तन जलता है
देखे रख कर कोई सूरज के बराबर मुझ को