ख़ूनीं गुलाब सब्ज़ सनोबर है सामने
आँखों में क़ैद करने का मंज़र है सामने
फ़ौज-ए-सियाह चारों तरफ़ महव-ए-गश्त है
ख़ंजर बरहना रात का लश्कर है सामने
वो साँस ले रहा है मगर ज़िंदगी कहाँ
शीशे में बंद लाख का पैकर है सामने
इतरा के चल शुऊर की ठोकर भी खा के देख
बे-लम्स आगही का वो पत्थर है सामने
फ़ितरत पे ये भी तंज़ है शायद 'शकेब-अयाज़'
प्यासी है रेत और समुंदर है सामने

ग़ज़ल
ख़ूनीं गुलाब सब्ज़ सनोबर है सामने
शकेब अयाज़