ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं
ख़ाली काग़ज़ पर लकीरें खींचता रहता हूँ मैं
आज से मुझ पर मुकम्मल हो गया दीन-ए-फ़िराक़
हाँ तसव्वुर में भी अब तुझ से जुदा रहता हूँ मैं
तू दयार-ए-हुस्न है ऊँची रहे तेरी फ़सील
मैं हूँ दरवाज़ा मोहब्बत का, खुला रहता हूँ मैं
शाम तक खींचे लिए फिरते हैं इस दुनिया के काम
सुब्ह तक फ़र्श-ए-नदामत पर पड़ा रहता हूँ मैं
हाँ कभी मुझ पर भी हो जाता है मौसम का असर
हाँ किसी दिन शाकी-ए-आब-ओ-हवा रहता हूँ मैं
अहल-ए-दुनिया से तअ'ल्लुक़ क़त्अ होता ही नहीं
भूल जाने पर भी सूरत-आश्ना रहता हूँ मैं
ग़ज़ल
ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं
अहमद मुश्ताक़