ख़ूगर-ए-जौर पे थोड़ी सी जफ़ा और सही
इस क़दर ज़ुल्म पे मौक़ूफ़ है क्या और सही
ख़ौफ़ ग़म्माज़ अदालत का ख़तर दार का डर
हैं जहाँ इतने वहाँ ख़ौफ़-ए-ख़ुदा और सही
अहद-ए-अव्वल को भी अच्छा है जो पूरा कर दो
तुम वफ़ादार हो थोड़ी सी वफ़ा और सही
जिस ने हंगामा अदालत का तिरी देखा है
उस गुनहगार को इक रोज़-ए-जज़ा और सही
किश्वर-ए-कुफ़्र में काबे को भी शामिल कर लो
सैर-ए-ज़ुल्मात को थोड़ी सी फ़ज़ा और सही
बंदगी में तिरी सहते ही हैं लू की लपटें
चंद दिन के लिए दोज़ख़ की हवा और सही
दीन ओ दिल जा ही चुका जान भी जाती है तो जाए
तरकश-ए-कुफ़्र में इक तीर-ए-क़ज़ा और सही
रब्ब-ए-इज़्ज़त के लिए भी कोई रहने दो ख़िताब
तुम ख़ुदावंद ही कहलाओ ख़ुदा और सही
हुक्म-ए-हाकिम न सही मर्ग-ए-मुफ़ाजात से कम
मालिक-उल-मुल्क पे ईमाँ की सज़ा और सही
हम वफ़ा-केशों का ईमाँ भी है परवाना-सिफ़त
शम-ए-महफ़िल जो वो काफ़िर न रहा और सही
ग़ज़ल
ख़ूगर-ए-जौर पे थोड़ी सी जफ़ा और सही
मोहम्मद अली जौहर