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ख़ुश्क लम्हात के दरिया में बहा दे मुझ को | शाही शायरी
KHushk lamhat ke dariya mein baha de mujhko

ग़ज़ल

ख़ुश्क लम्हात के दरिया में बहा दे मुझ को

ज़ाहिद फ़ारानी

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ख़ुश्क लम्हात के दरिया में बहा दे मुझ को
मर्ग-ए-एहसास की सूली पे चढ़ा दे मुझ को

कौन आ कर तिरे इंसाफ़ का मिस्दाक़ बने
बे-गुनाही पे अगर तू न सज़ा दे मुझ को

एक पल में ये मिरा रंग उड़ा देते हैं
रास आते नहीं ख़ुश-रंग लिबादे मुझ को

यूँ मुझे देख के चेहरा न छुपा हाथों से
मैं तिरा जिस्म-ए-बरहना हूँ क़बा दे मुझ को

न मिली कूचा-ओ-बाज़ार में ढूँडे से कहीं
जो नज़र नक़्श-ब-दीवार बना दे मुझ को

तू हयूला जो नहीं है तो मिरे सामने आ
गुम्बद-ए-दर्द में छुप कर न सदा दे मुझ को