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ख़ुश्क दामन पे बरसने नहीं देती मुझ को | शाही शायरी
KHushk daman pe barasne nahin deti mujhko

ग़ज़ल

ख़ुश्क दामन पे बरसने नहीं देती मुझ को

रज़ा मौरान्वी

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ख़ुश्क दामन पे बरसने नहीं देती मुझ को
मेरी ग़ैरत कभी रोने नहीं देती मुझ को

एक ख़्वाहिश है जो मुद्दत से गला घोंटे है
इक तमन्ना है जो मरने नहीं देती मुझ को

ज़िंदगी रोज़ नया दर्द सुनाती है मगर
अपने आँसू कभी छूने नहीं देती मुझ को

दिल तो अहबाब से मिलने को बहुत चाहता है
मुफ़्लिसी घर से निकलने नहीं देती मुझ को

कुछ तो कानों को सताता है ये तन्हाई का शोर
कुछ मिरी ख़ामुशी सोने नहीं देती मुझ को

फ़िक्र ग़ुर्बत की मिरे पीछे पड़ी हो जैसे
चैन से लुक़्मा निगलने नहीं देती मुझ को

ले तो आती है ज़रूरत मुझे बाज़ारों तक
इक अना है कि जो बिकने नहीं देती मुझ को

इतना एहसान तो करती है 'रज़ा' मुझ पे हयात
टूट जाऊँ तो बिखरने नहीं देती मुझ को