ख़ुशी अपनी न अब तो लौटती मा'लूम होती है
उन्हें मिल कर उन्हें की हो गई मा'लूम होती है
असीरान-ए-क़फ़स रोने से क्या सय्याद छोड़ेगा
किसी को कब किसी की बेकसी मा'लूम होती है
हमारी सादा-लौही देखिए राह-ए-मोहब्बत में
किसी की दुश्मनी भी दोस्ती मा'लूम होती है
अगर तुम ने न पहचाना तो क्या अब रंज-ए-फ़ुर्क़त में
मुझे अपनी भी सूरत अजनबी मा'लूम होती है
चले आओ मिरी तन्हाइयों पर ख़ंदाँ हैं अंजुम
बरसती आग सी ये चाँदनी मा'लूम होती है
कहीं पर बैठ कर आराम की लो साँस ना-मुम्किन
मुझे इक क़हर सी ये ज़िंदगी मा'लूम होती है
हज़ारों मंज़िलें तय हो गईं इस के तुफ़ैल 'आफ़त'
मिरी रहबर मिरी दीवानगी मा'लूम होती है

ग़ज़ल
ख़ुशी अपनी न अब तो लौटती मा'लूम होती है
ललन चौधरी