ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली
कासा लिए गदा का आया है चाँद ख़ाली
सन्नाहटा जुदा है और बे-ख़ुदी निराली
है मेरे जी के हक़ में ये अब्र बर्स-गाली
मजनूँ तो बावला था जिन राह ली जंगल की
स्याना वही कि जिस नीं कि शहर की हवा ली
लोहू में लोटता है बख़्त-ए-सियह का बरजा
काली घटा में ज़ेबा लागे शफ़क़ की लाली
ग़ज़ल
ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली
आबरू शाह मुबारक