ख़ुलूस-ओ-फ़िक्र की ये रौशनी कहाँ तक हो
मैं सोचता हूँ तिरी चाँदनी कहाँ तक हो
जुदा रहोगी मगर किस लिए किधर कब तक
मुझे पता तो चले तुम मिरी कहाँ तक हो
कहाँ ज़मीन कहाँ आसमाँ कहाँ हम तुम
यही है फ़र्क़ तो फिर दोस्ती कहाँ तक हो
लहू लहू भी हुआ पैरहन नज़र में रहा
जो ठेस दिल को लगी वो लगी कहाँ तक हो

ग़ज़ल
ख़ुलूस-ओ-फ़िक्र की ये रौशनी कहाँ तक हो
जावेद मंज़र