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ख़ुलूस-ए-सज्दा हर इक हाल में मुक़द्दम है | शाही शायरी
KHulus-e-sajda har ek haal mein muqaddam hai

ग़ज़ल

ख़ुलूस-ए-सज्दा हर इक हाल में मुक़द्दम है

शारिब लखनवी

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ख़ुलूस-ए-सज्दा हर इक हाल में मुक़द्दम है
वहीं पे दिल भी झुका दे जहाँ जबीं ख़म है

हज़ार जल्वों से पुर-नूर बज़्म-ए-आलम है
मगर चराग़-ए-मोहब्बत की रौशनी कम है

हमारे हाल-ए-परेशाँ पे मुस्कुरा देना
बड़ा लतीफ़ ये अंदाज़‌‌‌‌-ए-पुर्सिश-ए-ग़म है

हयात-ए-इश्क़ उमीदों पे काटने वालो
ख़बर भी है कि उमीदों की ज़िंदगी कम है

क़फ़स में थे तो चमन के लिए तड़पते थे
चमन में आए तो अहल-ए-चमन का मातम है

बशर के दर पे जबीन-ए-बशर का झुक जाना
क़सम ख़ुदा की ये तौहीन-ए-इब्न-ए-आदम है

वो दिल चुरा के निगाहों से छुप गए 'शारिब'
निगाह-ओ-दिल से मगर फ़ासला बहुत कम है