ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या
हरम से बे-नियाज़ है अगर मिरी जबीं तो क्या
यहाँ तो बूँद बूँद को नज़र तरस तरस गई
मिलें अगर बहिश्त में शराब-ओ-अंग्बीं तो क्या
नुमूद-ए-ज़िंदगी वही ख़ुरूश-ओ-हमहमा वही
उजड़ गए मकाँ तो क्या बदल गए मकीं तो क्या
शरर-ब-कफ़ नुजूम भी रिदा-ए-गुल भी ख़ूँ-चकाँ
निखर गया फ़लक तो क्या सँवर गई ज़मीं तो क्या
सुख़न तो मन की मौज है कहा जो लब पे आ गया
ज़माना दाद दे न दे बशर है नुक्ता-चीं तो क्या
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या
मंज़ूर अहमद मंज़ूर