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ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या | शाही शायरी
KHulus-e-ijz-o-bandagi rahin-e-dar nahin to kya

ग़ज़ल

ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या

मंज़ूर अहमद मंज़ूर

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ख़ुलूस-ए-इज्ज़-ओ-बंदगी रहीन-ए-दर नहीं तो क्या
हरम से बे-नियाज़ है अगर मिरी जबीं तो क्या

यहाँ तो बूँद बूँद को नज़र तरस तरस गई
मिलें अगर बहिश्त में शराब-ओ-अंग्बीं तो क्या

नुमूद-ए-ज़िंदगी वही ख़ुरूश-ओ-हमहमा वही
उजड़ गए मकाँ तो क्या बदल गए मकीं तो क्या

शरर-ब-कफ़ नुजूम भी रिदा-ए-गुल भी ख़ूँ-चकाँ
निखर गया फ़लक तो क्या सँवर गई ज़मीं तो क्या

सुख़न तो मन की मौज है कहा जो लब पे आ गया
ज़माना दाद दे न दे बशर है नुक्ता-चीं तो क्या