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खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो | शाही शायरी
khuli thi aankh samundar ki mauj-e-KHwab tha wo

ग़ज़ल

खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो

ज़ेब ग़ौरी

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खुली थी आँख समुंदर की मौज-ए-ख़्वाब था वो
कहीं पता न था उस का कि नक़्श-ए-आब था वो

उलट रही थीं हवाएँ वरक़ वरक़ उस का
लिखी गई थी जो मिट्टी पे वो किताब था वो

ग़ुबार-ए-रंग-ए-तलब छट गया तो क्या देखा
सुलगती रेत के सहरा में इक सराब था वो

सब उस की लाश को घेरे हुए खड़े थे ख़मोश
तमाम तिश्ना सवालात का जवाब था वो

वो मेरे सामने ख़ंजर-ब-कफ़ खड़ा था 'ज़ेब'
मैं देखता रहा उस को कि बे-नक़ाब था वो