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खुले हैं दश्त में नफ़रत के फूल आहिस्ता आहिस्ता | शाही शायरी
khule hain dasht mein nafrat ke phul aahista aahista

ग़ज़ल

खुले हैं दश्त में नफ़रत के फूल आहिस्ता आहिस्ता

असअ'द बदायुनी

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खुले हैं दश्त में नफ़रत के फूल आहिस्ता आहिस्ता
सरों तक आती है क़दमों की धूल आहिस्ता आहिस्ता

अभी कुछ दिन लगेंगे मौसमों का भेद पाने में
बदल जाएँगे यारों के उसूल आहिस्ता आहिस्ता

ज़ियाँ का कोई रिश्ता उम्र-भर क़ाएम नहीं रहता
सो मिट जाता है हर शौक़-ए-फ़ुज़ूल आहिस्ता आहिस्ता

मुझे जुर्म-ए-हुनर-मंदी का क़ाइल होने दो पहले
मैं हर इल्ज़ाम कर लूँगा क़ुबूल आहिस्ता आहिस्ता

ये धरती एक दिन बंजर ज़मीं बन जाएगी जानाँ
गुलाबों की जगह लेंगे बबूल आहिस्ता आहिस्ता