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खुला मुझ पर दर-ए-इम्कान रखना | शाही शायरी
khula mujh par dar-e-imkan rakhna

ग़ज़ल

खुला मुझ पर दर-ए-इम्कान रखना

ख़ालिद अहमद

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खुला मुझ पर दर-ए-इम्कान रखना
मिरे मौला मुझे हैरान रखना

यही इक मरहला मंज़िल न ठहरे
यही इक मरहला आसान रखना

मिरे दिल का वरक़ निकले न सादा
कोई ख़्वाहिश कोई अरमान रखना

ये दिल ताक़-ए-चराग़-ए-ज़र न ठहरे
मिरे मालिक मुझे नादान रखना

मिरे हालात मुझ को छू न पाएँ
मुझे हर हाल में इंसान रखना

भरी रखना मिरे मौला ये आँखें
दुखों की बारिशों का मान रखना

मिरे साथी भी मुझ से बे-नवा हैं
बिसातें देख कर तावान रखना

ये दिन क्यूँकर चढ़ा वो शब ढली क्यूँ
मुझे आया न इतना ध्यान रखना

मुझे भी आम या गुमनाम कर दे
कि इक आज़ार है पहचान रखना

असीर-ए-उम्र को आया न अब तक
किताब-ए-हिज्र का उनवान रखना

हवा की तरह सहरा से गुज़र जा
सफ़र में क्या सर-ओ-सामान रखना