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खुल गया उक़्दा-ए-हस्ती तो कफ़न माँग लिया | शाही शायरी
khul gaya uqda-e-hasti to kafan mang liya

ग़ज़ल

खुल गया उक़्दा-ए-हस्ती तो कफ़न माँग लिया

कौसर सीवानी

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खुल गया उक़्दा-ए-हस्ती तो कफ़न माँग लिया
ज़ीस्त ने मौत से जीने का चलन माँग लिया

फूट कर सीना-ए-कोहसार से बहने के लिए
चश्मा-ए-आब ने दामान-ए-दमन माँग लिया

क्या तअज्जुब है अगर माँग ली चेहरे से नक़ाब
दौर-ए-हाज़िर ने तो पैराहन-ए-तन माँग लिया

बन गया हल्क़ा-ए-ज़ुल्मत जो पड़ा अक्स-ए-ज़मीं
चाँद ने ख़ुद तो नहीं बढ़ के गहन माँग लिया

जिस की आग़ोश में माज़ी की अमानत थी निहाँ
उस ने माँगा तो वही क़स्र-ए-कुहन माँग लिया

जलने वालों ने भी शहनाज़-ए-ग़ज़ल से 'कौसर'
हुस्न-ए-फ़न माँग लिया रंग-ए-सुख़न माँग लिया