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खुल गया शायद भरम ऐ दिल जुनूँ के राज़ का | शाही शायरी
khul gaya shayad bharam ai dil junun ke raaz ka

ग़ज़ल

खुल गया शायद भरम ऐ दिल जुनूँ के राज़ का

नज़ीर रामपुरी

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खुल गया शायद भरम ऐ दिल जुनूँ के राज़ का
बदला बदला सा नज़र आता है रुख़ दम-साज़ का

गूँजती है अब भी कानों में सदा-ए-बाज़गश्त
टूटना दिल का था इक नग़्मा शिकस्ता-साज़ का

माह-ओ-अंजुम में भी उस का हुस्न जल्वा-रेज़ है
आफ़्ताब इक अक्स है हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ का

इक परी-ख़ाना है ये शहर-ए-हसीं लेकिन यहाँ
कोई चेहरा भी नज़र आया न उस अंदाज़ का

किस क़दर रंगीं है तरतीब-ए-किताब-ए-ज़िंदगी
इस में अफ़्साना है शायद तेरे हुस्न-ओ-नाज़ का

शोख़ियाँ फूलों से जब करने लगी बाद-ए-सहर
बारहा धोका हुआ है आप की आवाज़ का

अपना हर्फ़-ए-आरज़ू भी क्या क़यामत है 'नज़ीर'
दास्ताँ-दर-दास्ताँ है हर्फ़ हर्फ़ उस राज़ का