ख़ुदा से ज़ुल्म का शिकवा ज़रूर मैं ने किया
बड़ा क़ुसूर ये ऐ रश्क-ए-हूर मैं ने किया
किसी से दिल का लगाना गुनाह है नासेह
जो ये क़ुसूर है तो ये क़ुसूर मैं ने किया
वो ज़िक्र-ए-वादा-ए-वस्ल-ए-अदू पे कहते हैं
ज़रूर मैं ने किया बिज़्ज़रुर मैं ने किया
तिरा ख़याल मिरे दिल में आ नहीं सकता
कि जिस को दूर किया उस को दूर मैं ने किया
जनाब-ए-'नूह' ज़माने का ए'तिबार नहीं
बुरा किया जो किसी से ग़ुरूर मैं ने किया
ग़ज़ल
ख़ुदा से ज़ुल्म का शिकवा ज़रूर मैं ने किया
नूह नारवी