ख़ुदा नसीब करे जिस को सोहबतें मेरी
न भूल पाए कभी वो हिकायतें मेरी
कहाँ गए मिरी मसरूफ़ साअतों के रफ़ीक़
सदाएँ देती हैं अब उन को फ़ुर्सतें मेरी
तमाम शहर गुरेज़ाँ है आज कल जैसे
किसी के नाम न लग जाएँ तोहमतें मेरी
ख़ुदा का शुक्र कि मैं ख़ुद-शनास हूँ वर्ना
समझता कौन पुर-असरार आदतें मेरी
मैं अपनी ज़ात के सहरा में खो गया 'कौसर'
मिरी नज़र से भी ओझल हैं वुसअतें मेरी

ग़ज़ल
ख़ुदा नसीब करे जिस को सोहबतें मेरी
कौसर नियाज़ी