ख़ुद से मैं बे-यक़ीं हुआ ही नहीं
आसमाँ था ज़मीं हुआ ही नहीं
इश्क़ कहते हैं सब जिसे हम से
वो गुनाह-ए-हसीं हुआ ही नहीं
वस्ल भी उस का उस के जैसा था
जो गुमाँ से यक़ीं हुआ ही नहीं
ख़ाना-ए-दिल सरा की सूरत है
कोई इस में मकीं हुआ ही नहीं
लाख चाहा मगर सुख़न मेरा
क़ाबिल-ए-आफ़रीं हुआ ही नहीं
मैं भी ख़ुद को सँवारता 'मोहसिन'
आइना नुक्ता-चीं हुआ ही नहीं
ग़ज़ल
ख़ुद से मैं बे-यक़ीं हुआ ही नहीं
आस मोहम्मद मोहसिन