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ख़ुद से अब मुझ को जुदा यूँ ही मिरी जाँ रखना | शाही शायरी
KHud se ab mujhko juda yun hi meri jaan rakhna

ग़ज़ल

ख़ुद से अब मुझ को जुदा यूँ ही मिरी जाँ रखना

अज़ीज़ प्रीहार

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ख़ुद से अब मुझ को जुदा यूँ ही मिरी जाँ रखना
हर घड़ी ख़्वाब को तुम ख़्वाब-ए-परेशाँ रखना

अब इबादत की यही एक है सूरत बाक़ी
आँख को बंद किए होंट सना-ख़्वाँ रखना

ख़्वाब को ज़ेहन कहाँ है न यहाँ है न वहाँ
दिल के आँगन में कहीं गोर-ए-ग़रीबाँ रखना

बरहना रहने की तौफ़ीक़ कहाँ से लाए
ख़ुद को आया ही नहीं बे-सर-ओ-सामाँ रखना

राह चलते हैं तो दीवार उठा लेते हैं
कितना दुश्वार है आसाँ को भी आसाँ रखना

क्या सलीक़ा था वो 'ग़ालिब' हों कि हों 'मीर'-ओ-'फ़िराक़'
हिज्र में वस्ल का वो नक़्श-ए-गुरेज़ाँ रखना