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ख़ुद मसीहा ख़ुद ही क़ातिल हैं तो वो भी क्या करें | शाही शायरी
KHud masiha KHud hi qatil hain to wo bhi kya karen

ग़ज़ल

ख़ुद मसीहा ख़ुद ही क़ातिल हैं तो वो भी क्या करें

फ़ानी बदायुनी

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ख़ुद मसीहा ख़ुद ही क़ातिल हैं तो वो भी क्या करें
ज़ख़्म पैदा करें या ज़ख़्म-ए-दिल अच्छा करें

दिल रहे आलूदा-दामन और हम देखा करें
आज ऐ अश्क-ए-नदामत आ तुझे दरिया करें

जिस्म-ए-आज़ादी में फूंकी तू ने मजबूरी की रूह
ख़ैर जो चाहा किया अब ये बता हम क्या करें

ख़ून के छींटों से कुछ फूलों के ख़ाके ही सही
मौसम-ए-गुल आ गया ज़िंदाँ में बैठे क्या करें

जा-ब-जा तग़्यीर-ए-हाल-ए-दिल के चर्चे हैं तो हों
हम हुए रुस्वा मगर अब हम किसे रुस्वा करें

हाँ नहीं शर्त-ए-मुरव्वत हसरत-ए-तासीर-ए-दर्द
रहम आ ही जाएगा उन से तक़ाज़ा क्या करें

शौक़-ए-नज़्ज़ारा सलामत है तो देखा जाएगा
उन को पर्दा ही अगर मंज़ूर है पर्दा करें

ज़र्फ़ वीराना ब-क़द्र-ए-हिम्मत-ए-वहशत नहीं
लाओ हर ज़र्रे में पैदा वुसअत-ए-सहरा करें

मर्ग-ए-बे-हंगाम 'फ़ानी' वजह-ए-तस्कीं हो चुकी
ज़िंदगी से आप घबराते हैं घबराया करें