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ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी | शाही शायरी
KHud lafz pas-e-lafz kabhi dekh sake bhi

ग़ज़ल

ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी

फ़ुज़ैल जाफ़री

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ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी
काग़ज़ की ये दीवार किसी तरह गिरे भी

किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती
सूरज नज़र आता है हमें रात गए भी

वो हम कि ग़ुरूर-ए-सफ़-ए-आदा-शिकनी थे
आख़िर सर-ए-बाज़ार हुए ख़्वार बिके भी

बहती हैं रग ओ पय में दो-आबे की हवाएँ
इक और समुंदर है समुंदर से परे भी

अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
जलते नहीं मासूम गुनाहों के दिए भी