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ख़ुद को समझा है फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ भी हम ने | शाही शायरी
KHud ko samjha hai faqat wahm-o-guman bhi humne

ग़ज़ल

ख़ुद को समझा है फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ भी हम ने

ज़िया जालंधरी

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ख़ुद को समझा है फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ भी हम ने
ख़ुद को पाया है दिल-ए-कौन-ओ-मकाँ भी हम ने

देख फूलों से लदे धूप नहाए हुए पेड़
हँस के कहते हैं गुज़ारी है ख़िज़ाँ भी हम ने

शफ़क़-ए-सुब्ह से ताबिंदा समन-ज़ार से पूछ
रात काटी सू-ए-गर्दूं-निगराँ भी हम ने

देख कर अब्र भर आई हैं ख़ुशी से आँखें
सूखते होंटों पे फेरी है ज़बाँ भी हम ने

जिन के गीतों में है निकहत की लपक फूल का रस
सालहा-साल सुनी उन की फ़ुग़ाँ भी हम ने

अब उमंगें हैं तरंगें हैं तरन्नुम-अफ़्शाँ
ख़्वाहिशें देखीं हैं महरूम-ए-ज़बाँ भी हम ने

अब नज़र आए हैं आसूदा-ए-मंज़िल तो क्या
देखी क्या क्या तपिश-ए-रेग-ए-रवाँ भी हम ने