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ख़ुद को जब लग गई नज़र अपनी | शाही शायरी
KHud ko jab lag gai nazar apni

ग़ज़ल

ख़ुद को जब लग गई नज़र अपनी

एजाज़ तालिब

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ख़ुद को जब लग गई नज़र अपनी
ज़िंदगी बन गई खंडर अपनी

जब भी सूरज ग़ुरूब होता है
याद आती है दोपहर अपनी

उस का क़िस्सा भी अब तवील नहीं
है कहानी भी मुख़्तसर अपनी

साथ होता है जब भी ग़म उस का
मुझ को होती नहीं ख़बर अपनी

कोई मुबहम सा नक़्श-ए-पा भी नहीं
सूनी सूनी है रहगुज़र अपनी

हूँ तो अपनों की भीड़ में 'तालिब'
कोई लेता नहीं ख़बर अपनी