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ख़ुद को जब ख़ुद से किसी रोज़ रिहाई दूँगी | शाही शायरी
KHud ko jab KHud se kisi rose rihai dungi

ग़ज़ल

ख़ुद को जब ख़ुद से किसी रोज़ रिहाई दूँगी

सादिया सफ़दर सादी

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ख़ुद को जब ख़ुद से किसी रोज़ रिहाई दूँगी
मैं परिंदों की तरह उड़ती दिखाई दूँगी

ज़िंदगी तू मुझे कंगन न भी पहना बे-शक
मैं तुझे हँसते हुए फिर भी कलाई दूँगी

मोजज़े लफ़्ज़ मिरे ख़ल्क़ करेंगे ऐसे
चुप रही फिर भी ज़माने को सुनाई दूँगी

घर में ख़्वाबों को लहू कर के जलाऊंगी चराग़
दर-ओ-दीवार को आँखों की कमाई दूँगी

तुम मुझे हिज्र की रूदाद सुना देना बस
मैं तुम्हें ज़ख़्म हसीं अश्क तिलाई दूँगी

आख़िरी बार उठाना है मुझे दर्द का बार
आख़िरी बार मोहब्बत की दुहाई दूँगी

'सादिया' अहद बुज़ुर्गों से निभाउँगी सदा
हाथ को ख़ून से मैं रस्म-ए-हिनाई दूँगी