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ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे | शाही शायरी
KHud ko hujum-e-dahr mein khona paDa mujhe

ग़ज़ल

ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे

इफ़्तिख़ार नसीम

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ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
जैसे थे लोग वैसा ही होना पड़ा मुझे

दुश्मन को मरते देख के लोगों के सामने
दिल हँस रहा था आँख से रोना पड़ा मुझे

कुछ इस क़दर थे फूल ज़मीं पर खिले हुए
तारों को आसमान में बोना पड़ा मुझे

ऐसी शिकस्त थी कि कटी उँगलियों के साथ
काँटों का एक हार पिरोना पड़ा मुझे

कारी नहीं था वार मगर एक उम्र तक
आब-ए-नमक से ज़ख़्म को धोना पड़ा मुझे

आसाँ नहीं है लिखना ग़म-ए-दिल की वारदात
अपना क़लम लहू में डुबोना पड़ा मुझे

इतनी तवील ओ सर्द शब-ए-हिज्र थी 'नसीम'
कितनी ही बार जागना सोना पड़ा मुझे