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ख़ुद हो के कुछ ख़ुदा से भी मर्द-ए-ख़ुदा न माँग | शाही शायरी
KHud ho ke kuchh KHuda se bhi mard-e-KHuda na mang

ग़ज़ल

ख़ुद हो के कुछ ख़ुदा से भी मर्द-ए-ख़ुदा न माँग

नातिक़ गुलावठी

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ख़ुद हो के कुछ ख़ुदा से भी मर्द-ए-ख़ुदा न माँग
रस्म-ए-दुआ ये है कि दुआ ले दुआ न माँग

नादान मा-सिवा से न कर इल्तिजा न माँग
माँगे ख़ुदा से भी तो ख़ुदा के सिवा न माँग

मैं अपनी बे-ज़री की नदामत को क्या कहूँ
तू और शर्मसार न कर ऐ गदा न माँग

उन का करम भी देख ले अपना भरम भी रख
हर मुद्दई से माँग मगर मुद्दआ न माँग

ख़ूगर हो दर्द का कि यही है इलाज-ए-दर्द
ये किस के बस का रोग है उस की दवा न माँग

रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
आ तुझ को हम बताएँ कि क्या माँग क्या न माँग

रक्खी हुई है सारी ख़ुदाई तिरे लिए
हक़दार बन के सामने आ माँग या न माँग

इस ख़ाक-दान-ए-दहर में घुटता अगर है दम
मक़्दूर हो तो आग लगा दे हवा न माँग

मिलती नहीं मुराद तो 'नातिक़' ख़याल छोड़
मेरी सलाह ये है कि तू रूठ जा न माँग