ख़ुद ही तस्लीम भी करता हूँ ख़ताएँ अपनी
और तज्वीज़ भी करता हूँ सज़ाएँ अपनी
कोई देखे तो अदा-कारियाँ करना उस का
बंद आईने में करती है अदाएँ अपनी
मैं सुख़न-वर हूँ सो ख़ामोश नहीं रह सकता
मैं ने आँखों में बसाई हैं सदाएँ अपनी
क्या ज़माना था कि हम ख़ूब जचा करते थे
अब तो माँगे की सी लगती हैं क़बाएँ अपनी
माल है पास न हम चर्ब-ज़बाँ हैं 'मोहसिन'
शहर में किस तरह फिर साख बनाएँ अपनी
ग़ज़ल
ख़ुद ही तस्लीम भी करता हूँ ख़ताएँ अपनी
मोहसिन असरार

