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ख़ुद-फ़रेबी है दग़ा-बाज़ी है अय्यारी है | शाही शायरी
KHud-farebi hai dagha-bazi hai ayyari hai

ग़ज़ल

ख़ुद-फ़रेबी है दग़ा-बाज़ी है अय्यारी है

रफ़ीआ शबनम आबिदी

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ख़ुद-फ़रेबी है दग़ा-बाज़ी है अय्यारी है
आज के दौर में जीना भी अदाकारी है

तुम जो परदेस से आओ तो यक़ीं आ जाए
अब के बरसात ये सुनते हैं बड़ी प्यारी है

मेरे आँगन में तो काँटे भी हरे हो न सके
उस की छत पे तो महकती हुई फुलवारी है

चूड़ियाँ काँच की क़ातिल न कहीं बन जाएँ
सेहर-अंगेज़ बुरी उन की गुलू-कारी है

काश बिजली कोई चमके कोई बादल बरसे
आज की शाम ज़मीनों पे बहुत भारी है

खा गई गर्मी-ए-जज़्बात को रस्मों की हवा
आज हर शख़्स फ़क़त बर्फ़ की अलमारी है

मैं भी राधा से कोई कम तो नहीं हूँ 'शबनम'
साँवले रंग का मेरा भी तो गिरधारी है