ख़ुद-फ़रामोश-ए-क़फ़स हम हैं चमन याद नहीं
ग़ैर के हो गए ऐसे कि वतन याद नहीं
चाँदनी हुस्न की अच्छी है मगर नाज़ न कर
तुझ को इस चाँद का तारीक गहन याद नहीं
उस की महफ़िल में हुआ था कभी अपना भी गुज़र
बातें कुछ की थीं मगर मुझ को दहन याद नहीं
शिकवा-ए-हिज्र की ख़्वाहिश न कर ऐ दिल कि तुझे
सामना हो तो कोई रंज-ओ-मेहन याद नहीं
जल्वा-ए-हिल्ला-ए-जन्नत से ये ख़ुद-रफ़्ता हुआ
मैं ने किन हाथों से पहना था कफ़न याद नहीं
क्यूँ सुनाते हो अबस अहल-ए-वफ़ा को बातें
कि उन्हें तर्ज़-ए-मुकाफ़ात-ए-सुख़न याद नहीं
तफ़र्रुक़ा-साज़-गरों की ये हद है कि मुझे
मिल के बैठे थे कभी रूह-ओ-बदन याद नहीं
हम तो मर मर के सिखाया किए लेकिन अब तक
इश्क़ का हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को चलन याद नहीं
तुर्रा-ए-गेसू-ए-जानाँ तिरी निकहत की क़सम
मैं ने देखा था मगर मुश्क-ए-ख़ुतन याद नहीं
क्या बताऊँ तुझे मैं क़ैद-ए-मोहब्बत क्या थी
दस्त-ओ-पा को मिरे ज़ंजीर-ओ-रसन याद नहीं
तेरे नज़्ज़ारे में दिल महव था ऐसा दम-ए-रंज
तेग़ का फल मुझे ऐ सेब-ए-ज़क़न याद नहीं
दाग़ गिनते हुए गुज़रे हैं क़फ़स में शब-ओ-रोज़
किस तरह खुलते थे गुल-हा-ए-चमन याद नहीं
क़द्र-दाँ पा के बहल जाते हैं आवारा-वतन
जब तो निकले हुए मोती को अदन याद नहीं
ज़ब्ह होने से मिरे उन को तअ'ज्जुब है तो हो
अपने माथे की वो ख़ूँ-रेज़ शिकन याद नहीं
कौन सुनता है ये अफ़्साना-ए-ग़म ऐ 'साक़िब'
क़ाबिल-ए-अहल-ए-ज़माना कोई फ़न याद नहीं

ग़ज़ल
ख़ुद-फ़रामोश-ए-क़फ़स हम हैं चमन याद नहीं
साक़िब लखनवी