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ख़ुद अपने अक्स को हैरत से देखता हूँ मैं | शाही शायरी
KHud apne aks ko hairat se dekhta hun main

ग़ज़ल

ख़ुद अपने अक्स को हैरत से देखता हूँ मैं

सलीम बेताब

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ख़ुद अपने अक्स को हैरत से देखता हूँ मैं
कनार-ए-आब बड़ी देर से खड़ा हूँ मैं

स्वाँग भरता फिरूँ कब तलक मोहब्बत के
मैं क्यूँ न साफ़ ही कह दूँ कि बेवफ़ा हूँ मैं

सुना न क़िस्से मुझे दामनों की इस्मत के
कि तेरे शहर के लोगों को जानता हूँ मैं

वो कौन है जो मिरे साथ साथ चलता है
ये देखने को कई बार रुक गया हूँ मैं

मैं आज देख सकूँगा तुलू'अ का मंज़र
कि रात बीत चली और जागता हूँ मैं

सितम है तू भी मुझे ख़ुद-ग़रज़ समझता है
कि तेरे हक़ में तो ख़ुद से भी लड़ रहा हूँ मैं

वो जी रहे हैं कि जो सोच से हुए आरी
मैं मर रहा हूँ कि 'बेताब' सोचता हूँ मैं