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ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं | शाही शायरी
KHud apna aks hun ki kisi ki sada hun main

ग़ज़ल

ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं
यूँ शहर ता-ब-शहर जो बिखरा हुआ हूँ मैं

मैं ढूँडने चला हूँ जो ख़ुद अपने-आप को
तोहमत ये मुझ पे है कि बहुत ख़ुद-नुमा हूँ मैं

मुझ से न पूछ नाम मिरा रूह-ए-काएनात
अब और कुछ नहीं हूँ तिरा आईना हूँ मैं

जब नींद आ गई हो सदा-ए-जरस को भी
मेरी ख़ता यही है कि क्यूँ जागता हूँ मैं

लाऊँ कहाँ से ढूँढ के मैं अपना हम-नवा
ख़ुद अपने हर ख़याल से टकरा चुका हूँ मैं

ऐ उम्र-ए-रफ़्ता मैं तुझे पहचानता नहीं
अब मुझ को भूल जा कि बहुत बेवफ़ा हूँ मैं