ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं
यूँ शहर ता-ब-शहर जो बिखरा हुआ हूँ मैं
मैं ढूँडने चला हूँ जो ख़ुद अपने-आप को
तोहमत ये मुझ पे है कि बहुत ख़ुद-नुमा हूँ मैं
मुझ से न पूछ नाम मिरा रूह-ए-काएनात
अब और कुछ नहीं हूँ तिरा आईना हूँ मैं
जब नींद आ गई हो सदा-ए-जरस को भी
मेरी ख़ता यही है कि क्यूँ जागता हूँ मैं
लाऊँ कहाँ से ढूँढ के मैं अपना हम-नवा
ख़ुद अपने हर ख़याल से टकरा चुका हूँ मैं
ऐ उम्र-ए-रफ़्ता मैं तुझे पहचानता नहीं
अब मुझ को भूल जा कि बहुत बेवफ़ा हूँ मैं
ग़ज़ल
ख़ुद अपना अक्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

