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ख़ुद आज़मा के भी दा'वे अजल के देखते हैं | शाही शायरी
KHud aazma ke bhi dawe ajal ke dekhte hain

ग़ज़ल

ख़ुद आज़मा के भी दा'वे अजल के देखते हैं

नामी अंसारी

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ख़ुद आज़मा के भी दा'वे अजल के देखते हैं
दयार-ए-शौक़ में इक बार चल के देखते हैं

पिघलती है कि नहीं बर्फ़-ए-ना-शनासाई
किसी की गर्म-निगाही से जल के देखते हैं

ये दश्त-ए-हू सर-ए-गुलशन कहाँ से आ निकला
ये मो'जिज़ा है तो घर से निकल के देखते हैं

जिन्हें मिली ही नहीं चश्म-ओ-दिल की बीनाई
तमाशे वो भी ख़ुमार-ए-अज़ल के देखते हैं

उसी के ज़िक्र से महफ़िल में फूल खिलते थे
वो आ गया है तो सब आँख मल के देखते हैं

किसी को आज के हालात पर क़रार नहीं
हमारे शहर में सब ख़्वाब कल के देखते हैं

अभी तो लम्स-ए-बदन का हिसाब बाक़ी है
तअ'ल्लुक़ात के पहलू बदल के देखते हैं

न कोई नारा-ए-तहसीं-नुमा न दाद-ए-सुख़न
कि सुनने वाले भी तेवर ग़ज़ल के देखते हैं

न जाने कब सर-ए-आईना ख़ौफ़ लिख जाए
हम अपना चेहरा भी 'नामी' सँभल के देखते हैं