खोया क्या पाया क्या हिसाब न कर
तो अबस वक़्त को ख़राब न कर
छोड़ हरगिज़ न राह-ए-हक़-गोई
अपनी मंज़िल को यूँ ख़राब न कर
साफ़ रख अपना दामन-ए-किरदार
तू उसे अश्कों से पुर-आब न कर
ग़म न कर दूसरों पे क्या गुज़रे
तू कभी हक़ से इज्तिनाब न कर
ग़म भी हैं ज़िंदगी का इक हिस्सा
दूसरों को तू इंतिसाब न कर
जो फ़राएज़ हैं भूल जाएँ 'करन'
इस क़दर ख़ुद को महव-ए-ख़्वाब न कर
ग़ज़ल
खोया क्या पाया क्या हिसाब न कर
करन सिंह करन