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खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश | शाही शायरी
kho na ja is sahar o sham mein ai sahib-e-hosh

ग़ज़ल

खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश

अल्लामा इक़बाल

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खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
इक जहाँ और भी है जिस में न फ़र्दा है न दोश

किस को मालूम है हंगामा-ए-फ़र्दा का मक़ाम
मस्जिद ओ मकतब ओ मय-ख़ाना हैं मुद्दत से ख़मोश

मैं ने पाया है इसे अश्क-ए-सहर-गाही में
जिस दुर-ए-नाब से ख़ाली है सदफ़ की आग़ोश

नई तहज़ीब तकल्लुफ़ के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरा रौशन हो तो क्या हाजत-ए-गुलगूना फ़रोश

साहिब-ए-साज़ को लाज़िम है कि ग़ाफ़िल न रहे
गाहे गाहे ग़लत-आहंग भी होता है सरोश