खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
इक जहाँ और भी है जिस में न फ़र्दा है न दोश
किस को मालूम है हंगामा-ए-फ़र्दा का मक़ाम
मस्जिद ओ मकतब ओ मय-ख़ाना हैं मुद्दत से ख़मोश
मैं ने पाया है इसे अश्क-ए-सहर-गाही में
जिस दुर-ए-नाब से ख़ाली है सदफ़ की आग़ोश
नई तहज़ीब तकल्लुफ़ के सिवा कुछ भी नहीं
चेहरा रौशन हो तो क्या हाजत-ए-गुलगूना फ़रोश
साहिब-ए-साज़ को लाज़िम है कि ग़ाफ़िल न रहे
गाहे गाहे ग़लत-आहंग भी होता है सरोश
ग़ज़ल
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
अल्लामा इक़बाल