खो कर तिरी गली में दिल-ए-बे-ख़बर को मैं
फ़िक्र-ए-ख़ुदी से छूट गया उम्र भर को मैं
साज़िश ब-क़द्र-ए-रब्त थी तूर ओ जमाल में
समझा हूँ आज उक़्दा-ए-संग-ए-शरर को मैं
अब है तो मुस्तक़िल हो फ़रोग़-ए-शब-ए-विसाल
ऐसा न हो चराग़ जलाऊँ सहर को मैं
सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा
क्यूँ ऐ जुनूँ यहीं न उठा लाऊँ घर को मैं
झूमा क्या सुरूर से 'सीमाब' रात भर
देखा किया किसी की नशीली नज़र को मैं
ग़ज़ल
खो कर तिरी गली में दिल-ए-बे-ख़बर को मैं
सीमाब अकबराबादी