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ख़िज़ाँ से पेशतर सारा चमन बर्बाद होता है | शाही शायरी
KHizan se peshtar sara chaman barbaad hota hai

ग़ज़ल

ख़िज़ाँ से पेशतर सारा चमन बर्बाद होता है

तिलोकचंद महरूम

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ख़िज़ाँ से पेशतर सारा चमन बर्बाद होता है
ग़ज़ब होता है जब ख़ुद बाग़बाँ सय्याद होता है

तुझे इस पर गुमान-ए-नग़्मा-ए-सय्याद होता है
क़फ़स में नाला-कश मुर्ग़-ए-गुलिस्ताँ-ज़ाद होता है

ख़ुशी के बा'द इक तू ही नहीं है मुब्तला-ए-ग़म
यूँही अक्सर जहाँ में ऐ दिल-ए-नाशाद, होता है

रवा रखता है वो बेदाद पहले अपनी फ़ितरत पर
जो इंसाँ दूसरे पर माइल-ए-बेदाद होता है

जो करता है निसार-ए-नौ-ए-इंसाँ अपनी हस्ती को
वो इंसाँ इफ़्तिख़ार-ए-आलम-ए-ईजाद होता है

मिरे अशआर की तौसीफ़ होती है मिरे होते
नहीं मा'लूम मेरे बा'द क्या इरशाद होता है

न कर 'महरूम' तू फ़िक्र-ए-सुख़न अब फ़िक्र-ए-उक़्बा कर
नवा-परवाज़ बज़्म-ए-शेर में आज़ाद होता है