ख़िज़ाँ से जोड़ के रिश्ता बहार का कोई 
ख़ुशी नहीं न सही ग़म तो दे गया कोई 
न शुक्रिया न शिकायत ये रब्त है कैसा 
किसे नसीब थी फ़ुर्सत कि सोचता कोई 
न कोई दोस्त न दुश्मन तो फिर ये उलझन क्यूँ 
तमाम उम्र इसी कर्ब में रहा कोई 
अजीब दौर से वाबस्तगी रही मेरी 
कि मिल सका न मुझे अपना हम-नवा कोई 
हक़ीक़तों के भी रुख़ से नक़ाब उठ जाता 
कभी जो अपने गरेबाँ में झाँकता कोई 
गुज़र गया तो हरीफ़ों के वार से बच कर 
ख़ुद अपनी तेग़-ए-अना से न बच सका कोई 
ज़बाँ से कुछ न कहा वो समझ गया लेकिन 
मिरी निगाह में था हर्फ़-ए-इल्तिजा कोई
        ग़ज़ल
ख़िज़ाँ से जोड़ के रिश्ता बहार का कोई
नाज़ क़ादरी

