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ख़िज़ाँ ने सताया न ख़ारों ने लूटा | शाही शायरी
KHizan ne sataya na Khaaron ne luTa

ग़ज़ल

ख़िज़ाँ ने सताया न ख़ारों ने लूटा

रूमाना रूमी

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ख़िज़ाँ ने सताया न ख़ारों ने लूटा
गुलों ने दिए दुख बहारों ने लूटा

फ़लाही रियासत का नक़्शा दिखा कर
ग़रीबों को सरमाया-कारों ने लूटा

जो इस्लाम के नाम पर चल रहे थे
मज़ा उन सियासी इदारों ने लूटा

कड़े वक़्त पर काम आना था जिन को
वतन को उन्हीं जाँ-निसारों ने लौटा

तुझे क़ाज़ी-ए-शहर कैसे बताऊँ
मिरा घर मिरे पहरा-दारों ने लूटा

ब-ज़ाहिर थे रहबर पस-ए-पर्दा रहज़न
क़यादत को उम्मीद-वारों ने लूटा

जो इमदाद तूफ़ाँ के मारों को आई
उसे ख़ूब तक़्सीम-कारों ने लूटा

कभी सोचती हूँ कि क़ौमी ख़ज़ाना
वज़ाहत-तलब गोशवारों ने लूटा

हक़ीक़त तो ये है कि मेरे वतन को
वतन दोस्त तख़रीब-कारों ने लूटा

तलातुम में पहले ही जो लुट चुके थे
ऐ 'रूमी' उन्हें फिर किनारों ने लूटा