ख़िज़ाँ की ज़द पे था दुश्मन की भी निगाह में था
वो साया-दार शजर जो हमारी राह में था
ज़माना याद भी करता तो किस तरह हम को
हमारा नाम फ़क़ीरों में था न शाह में था
बुलंदियों से गिरा तो ज़मीन भी न मिली
वजूद अपना सँभाले हुए वो चाह में था
जिन्हें ग़ुरूर हवाओं पे था वो ख़ार हुए
वो सर-बुलंद रहा जो तिरी पनाह में था
मिरे ख़िलाफ़ हुआ है जो फ़ैसला 'क़ैसर'
मिरा हरीफ़ भी शामिल मिरे गवाह में था

ग़ज़ल
ख़िज़ाँ की ज़द पे था दुश्मन की भी निगाह में था
नूरुल ऐन क़ैसर क़ासमी