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ख़िज़ाँ के दोश पे है फ़स्ल-ए-गुल का रख़्त अभी | शाही शायरी
KHizan ke dosh pe hai fasl-e-gul ka raKHt abhi

ग़ज़ल

ख़िज़ाँ के दोश पे है फ़स्ल-ए-गुल का रख़्त अभी

जाफ़र बलूच

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ख़िज़ाँ के दोश पे है फ़स्ल-ए-गुल का रख़्त अभी
कि बर्ग-ओ-बार से ख़ाली है हर दरख़्त अभी

अभी ग़मों से इबारत है सर-नविश्त-ए-बशर
कि आसमान परे है ज़मीन सख़्त अभी

समझ शुआ-ए-बुरीदा न सिर्फ़ जुगनू को
किरन किरन का जिगर होगा लख़्त लख़्त अभी

मता-ए-जाँ भी उसे पेश कर चुका हूँ मैं
मिरे रक़ीब का लहजा है क्यूँ करख़्त अभी

तमाम रात रहा मय-कदा-नशीं 'जाफ़र'
गया है उठ के यहाँ से वो नेक-बख़्त अभी